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पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य: विचारों के परिवर्तन से क्रांति का सूत्रपात

हम बदलेंगे युग बदलेगा, हम सुधरेंगे युग सुधरेगा. आदिवासी जिले झाबुआ की पेटलावद तहसील में गायत्री शक्तिपीठ की स्‍थापना के समय यह नारा लगाया था. तब तो सबके साथ नारे लगाते रहे. उस वक्‍त शक्तिपीठ के आरंभ के वक्‍त घरों में सबको दिखाई देनी वाली जगह पर कुछ स्‍टीकर भी चस्‍पा किए गए थे. इनमें कुछ सूत्र वाक्‍य लिखे थे. इन सूत्र वाक्‍यों के माध्‍यम से पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य से परिचय हुआ.

उस समय उम्र कम थी और समझ भी. शब्‍दों के प्रभाव से अनजान मेरे भीतर ‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’ जैसे शब्‍द कई दिनों तक भीतर कौंधते रहे. ध्‍येय तो समझ नहीं आया लेकिन अंदर एक बीज पड़ गया कि हम स्‍वयं को बदल कर पूरे युग को बदल सकते हैं, अकेला चना भी भाड़ा फोड़ सकता है। आगे चल कर ‘अखंड ज्‍योति’ के पाठक बने. अधिक चीजें तो मन में नहीं उतरी लेकिन उसके प्रेरक प्रसंग प्रभावित करते रहे. इस तरह अखिल भारतीय गायत्री परिवार (अब अखिल विश्‍व गायत्री परिवार) से परिचय गहरा हुआ.

युग निर्माण योजना आंदोलन का सूत्रपात करने वोल इस परिवार के आधार स्‍तंभ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने 2 जून को ही देह त्‍यागी थी. यह दिन इन स्‍मृतियों के साथ उनके कार्यों को स्‍मरण करने का अच्‍छा अवसर है. पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितंबर 1911 में उत्तर प्रदेश में आगरा के पास आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। इनके पिता का रूपकिशोर शर्मा और माता दानकुंवारी देवी था. उनका जन्म तो धनी ब्राह्मण परिवार में हुआ था, लेकिन संवेदना का स्‍तर बचपन से ही उच्‍च रहा. वह दौर छुआछूत के चरम का युग था आश्र उन्होंने कुष्ठ रोग से पीड़ित एक अछूत महिला को अपने परिवार की मंजूरी के खिलाफ समर्थन देने जैसा साहसिक कदम उठाया था. वैद्यों के परामर्श से उन्होंने बुजुर्ग महिला के लिए औषधियां और वस्त्र जुटाए. बाद का जीवन भी उन्‍होंने सादगी से जिया. यहां कि उनके बारे में कहा गया कि उन्‍होंने विपन्‍नता को ओढ़ लिया था. ऐसा उदाहरण अपने संदेश को जीने वाले व्‍यक्तित्‍व ही प्रस्‍तुत कर सकते हैं.

जीवनी बताती है कि 18 जनवरी 1926 को एक आध्यात्मिक गुरु स्वामी सर्वेश्वरानंदजी ने 15 वर्षीय बालक में अध्‍यात्‍म की लौ जगाई. इस दौरान जहां उन्‍होंने 24 लाख बार गायत्री मंत्र का जाप भी किया तो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग भी लिया. पांडिचेरी में श्री अरबिंदो आश्रम, तिरुवन्नामलाई में महर्षि रमन के आश्रम, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन, अहमदाबाद में साबरमती आश्रम में महात्मा गांधी के साथ संपर्क ने उनके भीतर अध्‍यात्‍म और देशसेवा की अद्भुत अलख जगा दी.

यही वह समय रहा जब उन्‍होंने महसूस किया होगा कि परिवर्तन की क्रांति हथियार से नहीं विचारों से आ सकती है. इस तथ्‍य को जान लेने के बाद उन्‍होंने अपने विचारों और विश्वासों को दुनिया के सामने प्रकट करने के लिए लेखन को चुना. 1940 में ‘अखंड ज्‍योति’ का प्रकाशन आरंभ हुआ जिसके माध्यम से उन्होंने लोगों के मन से अंध विश्वास को मिटा कर और ज्ञान,शक्ति और आध्यात्मिक की तान छेड़ दी. अगले दो दशक ज्ञान यात्रा के पड़ाव रहे. 1960 तक आचार्य श्रीराम शमर्ा ने 4 वेदों, 108 उपनिषदों, 6 दर्शनों, 18 पुराणों, 20 स्मृतियों, 24 गीता, योगवशिष्ठ, निरुक्त, व्याकरण, और सैकड़ों आरण्यक और ब्राह्मणों का संपादन और अनुवाद किया.

इस साहित्‍य अनुवादों में एक बात विशिष्‍ट थी कि आचार्य श्रीराम शर्मा ने सारा साहित्‍य लोगों के मन की भ्रांतियों, अंधविश्वासों और अंध रिवाजों को खत्‍म करने के ध्‍येय से रचा. उनके कहन की शैली और भाषा इतनी सहज है कि कही गई बात निरक्षर से लेकर उच्‍च साक्षर व्‍यक्ति तक समान रूप से पहुंचती है. फिर 2 जून, 1990 भी आया जब 78 वर्ष की आयु में आचार्य श्रीराम शर्मा की मृत्यु हुई. मगर युग निर्माण आंदोलन थमा नहीं, यह और व्‍यापक हुआ. इस कार्य को उनकी धर्मपत्‍नी माता भगवतीदेवी शर्मा ने संभाला और विस्‍तार दिया.

पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के कार्य व्‍यवहार और प्रणाली ने मतमतांतर हो सकता है लेकिन इतना तो तय है कि उनका साहित्‍य और उनका जीवन विचारों को प्रज्‍ज्‍वलित करने और स्‍वयं को बदलने की प्रेरणा देता है. उनके साहित्‍य और सूत्र वाक्‍यों को पढ़ना हमें चेतना से भरता है. जैसे, वे एक जगह लिखते हैं, जो बात अनुचित है, उसे हृदय में अनुचित ही मानिए. आप इसका त्याग नहीं कर पा रहे हैं, यह दूसरी बात है. चूंकि हम बीमार हैं, इसलिए बीमारी अच्छी चीज है, यह मानना या खुद समझना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है. मनुष्य भूलों, कमजोरियों और बीमारियों से मुक्त नहीं है, आप भी उनसे मुक्त नहीं हैं.’

यदि यह बात समझ आ जाए तो हम स्‍वयं के उत्‍थान के प्रति गंभीर हो जात हैं. और फिर उस यात्रा की ओर चल पड़ते हैं जिसका जिक्र पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने यूं किया है:

हमें अपनी कमजोरियों को समझना चाहिए और उनके विरुद्ध विद्रोह जारी रखना चाहिए, चाहे वह विद्रोह कितना भी मंद क्यों न हो. जो बुराई है, उसे बुराई ही समझना चाहिए और उसके विरुद्ध लड़ाई जारी रखनी चाहिए. यहां हम एक बात अवश्य कहेंगे कि आप आध्यात्मिकता के मौलिक सिद्धांतों को समझिए. पूजा को पीछे हटाइए, आध्यात्मिकता के मौलिक सिद्धांतों को समझिए आप यह मत सोचिए कि गुरुजी ने चौबीस-चौबीस लाख का जप किया था. नहीं, हम और चौबीस लाख के जप करने वालों का नाम बता सकते हैं जो आज बिलकुल खाली एवं छूंछ हैं. जप करने वाले कुछ नहीं कर सकते हैं, हम ब्राह्मण की शक्ति, संत की शक्ति जगाना चाहते हैं. आप राम का नाम लें या न लें. अब तो मैं यहां तक कहता हूं कि अब माला जप करें या न करें, एक माला जप करें या  81 माला जप करें, परंतु मुख्य बात यह है कि आप अपने ब्राह्मणत्व को जगाइए. प्याऊ को कौन चलाएगा? हनुमान चालीसा पाठ करने वालों ने कितनों का भला किया है? ब्राह्मणों ने भला किया है, संतों ने भला किया है. ब्राह्मणों की वाणी में, संतों की तपस्या में बल होता है. आपको इसी प्रकार कोई मिल जाएगा तो आप नास्तिक हो जाएंगे. आप पूजा का महत्त्व बढ़ाइए, अध्यात्म इन लोगों के द्वारा ही टिका हुआ है.

यहां वे उस ब्राह्मणत्‍व की बात कर रहे हैं जो ब्रह्म का विचार करता है, वह नहीं जो पोंगापंथी है. तभी तो एक जगह वे लिखते हैं, आपके पास बैंक में धन जमा नहीं है, तो चैक कैसे काट सकते हैं? आपकी बैंक में पूंजी होनी चाहिए. पहले जमा तो कीजिए कुछ. केवल पूजा से ही काम चलने वाला नहीं है. हमारी सबसे बड़ी पूजा समाज की सेवा है. हमने लाखों आदमियों की ही नहीं, वरन् सारे विश्व की सेवा की है. हमने अपनी अक्ल, धन, अनुष्ठान, वर्चस्‍व सभी इसी में लगाया है. हमने खेती करने वालों, मकान बनाने वालों को देखा है कि सेवा के नाम पर नगण्य हैं.

तब भी ऐसे ही विचार परिवर्तन की क्रांति का सूत्रपात कर सकते थे और आज भी ऐसे ही विचारों का पालन हमारा मार्गप्रशस्‍त कर सकता है. पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य की पुण्‍यतिथि पर उनके कुछ विचारों का पाठ कर लेना अच्‍छा होगा:

मुस्कुराने की कला दुखों को आधा कर देती है.

मनुष्य एक अनगढ़ पत्थर है, जिसे शिक्षा रूपी छेनी ओर हथौड़ी से सुंदर आकृति प्रदान की जा सकती हैं.

जो शिक्षा मनुष्य को परावलंबी, अहंकारी और धूर्त बनाती हो, वह शिक्षा, अशिक्षा से भी बुरी है.

जिस शिक्षा में समाज और राष्ट्र के हित की बात नहीं हो, वह सच्ची शिक्षा नहीं कही जा सकती.

अपनी प्रसन्नता को दूसरों की प्रसन्नता में लीन कर देने का नाम ही ‘प्रेम’ है.

फूलों की खुशबू हवा के विपरीत दिशा में नहीं फैलती लेकिन सद्गुणों की कीर्ति दसों दिशाओं में फैलती है.

प्रभावी और सार्थक उपदेश वह होता है जो वाणी से नहीं, अपने आचरण से प्रस्तुत किया जाता है.

मनुष्य अपनी परिस्थितियों का निर्माता खुद ही होता है.

दूसरों के साथ वह व्यवहार मत करो, जो तुम्हें खुद अपने लिए पसंद नहीं.

Tags: Gayatri family, Hindi Literature, Literature, Shantikunj

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Author: traffictail

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