नई दिल्ली
: नव
दलित लेखक संघ ने संविधान दिवस पर डॉ
सुमित्रा मेहरोल की आत्मकथा 'टूटे पंखों से परवाज़ तक' पर ऑनलाइन परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन किया। गोष्ठी में डॉ. गीता कृष्णांगी, सईद परवेज़, अरुण कुमार पासवान, आर जी कुरील, हुमा ख़ातून, डॉ. संतोष पटेल, डॉ. पूनम तुषामड और अनिता भारती वक्ता के तौर पर उपस्थित र। गोष्ठी की अध्यक्षता पुष्पा विवेक ने की और संचालन डॉ. अमित धर्मसिंह ने किया।
गोष्ठी में क्रमशः कश्मीर सिंह, मदनलाल राज़, डॉ. सुमन धर्मवीर, एनी एलेक्स, साधना कनौजिया, राकेश कुमार सिंह, राहुल कुमार, सुरेंद्र अंबेडकर, सीमा कुमारी, डॉ. सुनीता मंजू, डॉ. कृष्ण चंद्र, आकांक्षा, मामचंद सागर, सलीमा, पूर्णिमा रावत, फूलसिंह कुस्तवार, कुलदीप एडवोकेट, अजय यतीश, बरवाली हैदर, बंशीधर नाहरवाल, डॉ. उषा सिंह, रेनू गौर, जोगेंद्र सिंह, डॉ. सुनीता कुमारी, नीता बारडोली, जालिम प्रसाद, डॉ. खन्नाप्रसाद अमीन, जय कौशल, डॉ. विक्रम कुमार, डॉ. हनमंत सोहानी, इंदु रवि, श्रीलाल बौद्ध, चितरंजन गोप लुकाटी, आर एस मीणा, भीष्मदेव आर्य, डॉ. एम एन गायकवाड, देव प्रसाद पातरे, आशा यादेश्वर, हरेंद्र सिन्हा, रजनी दिसोदिया, समय सिंह जोल, भूपसिंह भारती, ममता अंबेडकर, सेवरल प्रैक्टिसनर (...), जयराम कुमार पासवान, जलेश्वरी गेंदले, अमित रामपुरी, लोकेश कुमार, ज्योति पासवान, सत्यदेव प्रसाद और प्रदीप कुमार सागर आदि गणमान्य साहित्यकार उपस्थित रहे।
सभी का अनौपचारिक धन्यवाद ज्ञापन मदनलाल राज़ ने किया। गोष्ठी में सर्वप्रथम डॉ. अमित धर्मसिंह ने संविधान दिवस के उपलक्ष्य में संविधान की प्रस्तवाना का वाचन किया, तत्पश्चात डॉ. गीता कृष्णांगी ने डॉ. सुमित्रा मेहरोल का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि "डॉ. सुमित्रा मेहरोल की आत्मकथा सहित कुल तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इनकी कहानी लेख आदि प्रकाशित होते रहते हैं।" इसके बाद उपस्थित वक्ताओं ने अपने विचार प्रस्तुत किए। सईद परवेज़ ने "व्यवहारिक दलित और सैद्धांतिक दलित के भेद को समझाया और कहा कि सुमित्रा मेहरोल का संघर्ष सेल्फ हेल्प का संघर्ष है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में एक दूसरे का ऋणी होता है। प्रस्तुत आत्मकथा को इस नजरिए से देखने की भी जरूरत है।" आर. जी. कुरील ने कहा कि "आत्म कथा मे लेखिका के जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। विकलांगता को दरकिनार कर पढ़ते रहना, आगे बढ़ते रहना यह आत्म कथा के दूसरे भाग- परवाज़ तक को प्रदर्शित करता है।" हुमा ख़ातून ने कहा कि आत्मकथा में एक लड़की होने के नाते जो समस्याएं लेखिका ने दर्ज की हैं वो कमोबेश प्रत्येक लड़की को फेस करनी पड़ती है। भले ही वह सुंदर हो या न हो।" डॉ. संतोष पटेल ने कहा कि "दलित साहित्य में बहुत सी आत्मकथाएं प्रकाशित हो चुकी हैं और लगातार हो रही हैं लेकिन यह आत्मकथा कुछ अलग ढंग की है।
यह आत्मकथा रामदरश मिश्र की पंक्तियां '...वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे धीरे' और एक अन्य ग़ज़ल के शेर '...पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है' पर खरी उतरती है।" डॉ. पूनम तुषामड ने कहा कि "यह आत्मकथा आत्मनिर्भर जीवन जीने का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है। इससे हम अपने दम पर जीवन जीने और आगे बढ़ने की शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।" अरुण कुमार पासवान ने कहा कि "आत्मकथा में जहां एक दलित स्त्री का संघर्ष दर्ज हुआ है वहीं इसमें कुछ अंतर्विरोध और विरोधाभास भी देखने को मिले हैं। ऐसा इसलिए कि संबंधों को ठीक से एनालिसिस करने k कार्य आत्मकथा में छूट गया है। बावजूद इसके आत्मकथा हमें सार्थक सन्देश देती है।" अनिता भारती ने कहा कि " प्रस्तुत आत्मकथा को तीन तरह देखा व समझा जाना चाहिए। स्त्री नजरिए से, दलित स्त्री के नजरिए से और विकलांगता के नजरिए से। इन तीनों नजरियों से पढ़कर ही हम इस आत्मकथा को पूरी तरह समझ सकते हैं। संभवतः दलित साहित्य में दलित स्त्री के साथ-साथ विकलांगता को समाहित करने वाली यह पहली आत्मकथा है।" इसके बाद जालिम प्रसाद, डॉ. सुनीता मंजू और जोगेंद्र सिंह ने भी संक्षिप्त टिप्पणियां रखी। डॉ. सुमित्रा मेहरोल ने लेखकीय वक्तव्य में कहा कि "सबसे पहले तो मैं नव दलित लेखक संघ की पूरी टीम खासकर डॉ. अमित धर्मसिंह जी की बहुत आभारी हूं कि उन्होंने मेरी आत्मकथा पर इतनी सुंदर और सार्थक परिचर्चा गोष्ठी रखी। आत्मकथा में मैंने केवल सच्चाई लिखी है। किसी भी रिश्ते को कमतर आंकने का मेरा कोई इंटेंशन नही रहा। आज मैं जो कुछ भी हूं उसमें मेरे माता-पिता, मेरी दादी और बहुत से अन्य सहयोगियों का बहुत बड़ा हाथ है। बावजूद इसके, आत्मकथा को मेरे अबोध समय यानी आज से करीब चार-पांच दशक पहले के परिवेश और परिप्रेक्ष में समझने की जरूरत है।"
अध्यक्षता कर रही पुष्पा विवेक ने कहा कि "डॉ. सुमित्रा मेहरोल की आत्मकथा भारतीय समाज में स्त्री को लेकर जो मानसिकता है, उसे सामने लाकर रख देती है। लड़की अगर सुमित्रा मेहरोल की तरह अपंग हो तो परेशानी और भी बड़ी हो जाती है। बावजूद इसके सुमित्रा मेहरोल का संघर्ष और सफल होने का जज़्बा हमें प्रेरणा देने वाला है।" धन्यवाद ज्ञापन करते हुए मदनलाल राज़ ने कहा कि "समाज में फिजिकल डिफरेंट को लेकर संबोधित किए जाने वाले शब्दों में तो काफी सुधार हुआ है लेकिन मानसिकता में सुधार होना अभी बाकी है। इस तरह का साहित्य इस दिशा में सार्थक भूमिका अदा करेगा।"